25/07/22
3:20 PM
Indu Bala Singh
होश सम्हाला है जबसे मुझे अकेले काम करना अच्छा लगता है।
कितनी ख़ुशी होती है जब कोई अपना काम खुद अकेले ही कर ले किसी के आदेश या मार्गदर्शन के बिना ।
उम्र पाँच वर्ष थी होगी मेरी । बस न जाने कैसे लगा कि दाल बनाना बड़ा आसान है। देखती थी माँ बटुली में दाल धो कर बैठा देती है। बस कुछ समय के बाद दाल पक जाती है।
उस समय पीतल की बटुली होती थी घर में।
तो भई ! बटुली में दाल धो कर लकड़ी के चूल्हे पर बैठाया मैंने। पानी अन्दाज़ से डाला बटुली के दाल में। हल्दी और नमक भी डाला मैंने। किचेन में बैठ के पकायी दाल मैंने। बीच में माँ झांक कर जा रही थी बार बार।
´ मैं बना लूँगी ´
मेरा स्लोगन था।
दाल पक गयी।
अब चूल्हे से पकी दाल उतारनी थी। कपड़े से पकड़ कर दाल की बटुली चूल्हे से उतारने से हाथ के जलने का भय था।
तो भई! हमने सड़सी से पकड़ कर बटुली चूल्हे से उतारना बेहतर समझा।
बस सड़सी से बटुली उठाते ही टेढ़ी हुई बटुली। पूरे पके दाल की नदी बन गयी।
अब दाल ज़मीन पर गिर गयी तभी तो वह घटना याद है मुझे।
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