Wednesday, July 15, 2020

पेड़ के नीचे निपट लो भई !


- इंदु बाला सिंह
शुलभ शौचालय बना है राहगीरों के लिये | तो चली गयी मैं अंदर |
अरे भई !
मूल्य तो लिखना था बड़े बड़े अक्षरों में एक बार यूज़ करने का | पर कहीं नहीं दिखा मुझे पहली निगाह में | लिखा था होगा कहीं छोटे छोटे अक्षरों में ,मुझे नहीं दिखा |
एक बार पहले भी गई थी दस रूपये ले के , तो बोला था इंचार्ज खुचरा नहीं है |
तो भई इस बार खुचरा ले के गयी थी |
मैंने पूछा , ' यूज़ करने के कितने लगेंगे | '
पूछना पड़ा भई |
मैंने सोंचा कि काश बोर्ड होता लिखा , ' एक बार का चार्ज ' |
' पांच रूपये ' खड़ूस सा मुंह बना के उसने कहा | बगल में खड़ा युवक खिसक लिया |
मैंने सोंचा , पहले यूज़ फिर पैसे |
और मैंने यूज़ कर के पैसे दे दिये |
अंदर गंध था | क्या ये लोग फिनायल नहीं डाल सकते ?
बाहर शुलभ शौचालय के कैम्पस में फल फूल का चारावाला बैठा था | चारा बेच रहा था | अच्छा है कमाने के गुर जानते हैं लोग | पर सफाई के गुर से कोई मतलब नहीं |
ऐसा क्यों ? गंदगी से परहेज क्यों नहीं ?
पब्लिक शौचालय कैसे कैसे लोग यूज़ करते होंगे |
सफाई के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं ?
सड़क पर केले का छिलका या बिस्कुट के रैपर फेंकना जन्मसिद्ध अधिकार है क्या ?
और मैंने निर्णय लिया ' शुलभ शौचालय 'कभी नहीं यूज़ करना है भले पेड़ के नीचे किसी आड़ में निपट लिया जाय | अब रोक तो नहीं सकते न भई |

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