Wednesday, July 15, 2020

ऐसी जीवन संध्या ?


- इन्दु बाला सिंह
पैसेवाले बेटों के सामने हाथ न फैलाया कभी महेश मिश्रा ने । वे अपनी जीवन संध्या अपनी युवावस्था की कमायी
में मितव्ययता से काट रहे थे । उन्होंने अपने बच्चों से कभी कुछ न माँगा । पिता से दूर अलग अलग शहरों में बसे
बच्चों ने भी कभी स्वत : अपने पिता को हर माह कुछ रुपये भेजना ज़रूरी न समझा ।
स्वाभिमानी महेश जीं एक बार ऐसा बीमार पड़े कि वे फिर बिस्तर से न उठ सके ।
बिस्तर पर ही वे अपने जीवन के अंतिम दिन काटे । चौबीस घण्टों सेवा के लिए एक पुरुष नर्स लगवा दिया बेटों ने ।
महेश जी अपने अंतिम दिनों में अपने बेटों से डरने लगे थे ।
उन्हें उनके पलंग से हटा कर चौकी दे दी गयी थी ।
यूँ लग रहा था मानो अब तो वे जानेवाले हैं पलंग क्यों ख़राब की जाय । हालाँकि पलंग महेश जीं की कमाई की ही थी ।
मित्र गण कहने लगे .... जाने या अनजाने में महेश जी ने ज़रूर कोई पाप किया था जिसका फल वे भोग रहे थे ।
मुझे स्वाभिमानी महेश जी की वह जीवन संध्या आज भी विकल कर जाती है ।

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