वह दिखती थी मुझे यादों में हर कुछ दिन के बाद। वह कहती थी -
मुझे भूल गई क्या । मेरा जिक्र नहीं तेरी रचनाओं में ।
आज भी याद है वह मुझे
हमारे घर के सामने की बस्ती में रहता था उसका कुनबा कुछ महीनों से चांद की रोशनी तले ।
भोर भोर एक बड़ा सा एल्युमिनियम का कटोरा ले निकल पड़ती थी वह।
घर घर - मां माड़ दो कह कर भीख मांगती थी।
हमारे घर में माड़ बेसिन में बहाना सुविधाजनक था ।
एक दिन मेरी सासूमां ने उससे कहा - तू हमारा बर्तन मांज। तुझे पैसा मिलेगा ।
सूखे बिखरे बालवाली भीख मांगनेवाली को घर में घुसाना न भाया मुझे । पर जाड़े में कामवाली मिलना मुश्किल था मुझे । मेरा मन मान गया ।
बाहर आंगन में बैठ कर बर्तन मांज सकती थी वो ।
धीरे धीरे उसके सिर में तेल पड़ने लगा । हमें देख कर औरों ने भी उसे काम पर रख लिया ।
अब वह भीखमांगनेवाली नहीं कामवाली थी ।
देखते देखते उसका कायाकल्प हो गया ।