Sunday, November 30, 2014

समझदार मेढ़क (लोक कथायें )


30 November 2014
20:55
-इंदु बाला सिंह

एक बार एक ग्वाला ने शाम को बाल्टी में दूध दूहा और अपनी दूध से भरी दोनों ही बाल्टी को खटाल में रख के भूल गया |

दो मेढ़क कहीं से कूदते कूदते आये और उन बाल्टियों में गिर पड़े |

पहली  बाल्टी का मेढ़क डर गया | वह सोंचा अभी तो रात है और ग्वाला तो सुबह ही आयेगा | वह तो अब बच नहीं सकता | कुछ घंटों में वह मेढ़क मर गया |


दूसरी बाल्टी का मेढ़क जब गिरा दूध में तो बड़ा परेशान हुआ | उसने सोंचा ग्वाला तो रात में आयेगा नहीं कि उसे दूध से बाहर निकल फेंकेगा | उसने सोंचा कि डरना क्या जब तक है जान तैरता रहुंगा | और रात भर वह मेढ़क अपनी पूरी ताकत लगाकर तैरता रहा | कुछ ही घंटों में दूध से मक्खन निकल आया | अब मेढ़क कूद कर उस मक्खन पर बैठ गया | फिर उसने एक जोरदार छलांग लगायी और वह दूध की बाल्टी के बाहर निकल आया |

Tuesday, November 18, 2014

एक हाथ जमीन


18 November 2014
22:00
-इंदु बाला सिंह
एक गांव में दो भाई थे | अपने पैतृक घर की एक हाथ की जमीन के लिये हर रोज वे लड़ पड़ते थे आपस में | सारा गांव यह तमाशा देखता था |
एक बार दोनों भाईयों में उसी एक हाथ की जमीन के लिये आपस में मार पीट हो गयी | फिर दोनों ने एक दुसरे को अदालत में देख लेने की धमकी दी |

गांववालों ने दोनों भाईयों को समझाया कि वे कोर्ट कचहरी के चक्कर में न पड़े गांव से दूर में एक पहाड़ी गुरूजी रहते हैं | उन दोनों भाईयों को उनके पास जाना चाहिये | वे जरूर उनकी समस्या सुलझा देंगे |

दोनों भाईयों ने सोंचा कि वहीं जा कर एक बार अपनी समस्या का हल खोजा जाय | वैसे उन्होंने भी उस विद्वान् गुरु जी का नाम सुन रखा था |

दुसरे दिन सुबह सुबह दोनों भाई निकल पड़े अपने अपने घर से | गुरूजी के घर पहुंचते पहुंचते दोनों भाई थक चुके थे |

गुरूजी ने दोनों भाईयों से उनकी समस्या सूनी और अपनी पत्नी से एक थाली में दो आदमी का खाना परोस  के लाने को कहा |

गुरुपत्नी जब खाने की थाली और पानी का लोटा रख कर चली गयी तब गुरूजी उठे और दो डंडा ला कर थाली का बगल में रख दिये |

" तुम लोग जो चाहिये उसे ले सकते हो | " गुरूजी ने कहा |

दोनों भाई सारी राह  पैदल चलने के कारण  थक कर चूर चूर थे | उन्होंने सोंचा कि पहले खाना खा लिया जाय फिर फैसला होगा युद्ध कर के |

दोनों भाई जब खाना खा  लिये तब गुरूजी ने कहा कि अब वे दोनों भाई अपने अपने घर जांय क्यों कि समस्या सुलझ गयी  है |

गुरूजी ने अपना डंडा वापस अपने पास रख लिया  |

दोनों भाई कुछ समझ न पाये और लौट गये अपने घर |

दुसरे दिन सुबह  फिर शुरू हो गयी वही पुरानी चिकचिक |

कुछ दिन बाद फिर गये दोनों भाई गये गुरूजी के घर |

" गुरूजी ! हमारी समस्या का तो कोई हल नहीं निकला | आप सोंचिये एक हाथ जमीन के लिये मैं लड़ रहा हूं | कल मैं नहीं रहूंगा | पर आज तो झगड़ा हो रहा है न | " बड़े भाई ने समझाया गुरूजी को |

" हां गुरूजी ! आप खुद सोंचिये हम तो हमेशा जिन्दा नहीं रहेंगे न , पर आज तो लड़ रहें हैं न एक हाथ जमीन के लिये | आप ही हमारी समस्या सुलझायिये | " छोटे भाई ने कहा

दोनों भाईयों का दिमाग ठंडा हो चूका था पर समस्या तो ज्यों की त्यों थी |

गुरूजी ने दोनों भाईयों की बात ध्यान से सूनी फिर कहा - " अरे ! यह कौन सी बड़ी बात है | उस एक हाथ जमीन पर तुम दोनों दीवार खड़ी कर दो | दीवार तो किसी की नहीं रहेगी न | "

दोनों भाईयों को गुरूजी का यह हल भा गया |

वे खुशी खुशी लौट आये | दोनों भाईयों के घर के आंगन में दीवार खड़ी हो गयी पर दोनों भाईयों का आपसी प्रेम बढ़ गया |


अब दोनों भाई खुश थे |

Saturday, November 15, 2014

कूआं का मेढ़क



13 November 2014
17:41

-इंदु बाला सिंह 


एक कूएं में दो मेढ़कों का परिवार रहता था | दोनों रिश्तेदार थे और एक दूसरे से जलते थे | एक दिन एक मेढ़क को चतुराई सूझी | उसने सोंचा क्यों न मैं सांप से दोस्ती कर लूं और उसे अपने कूआं में बुला लूं तो वह मेरे कूएं के रिश्तेदार परिवार को खा लेगा | फिर पूरे कूएं में मेरा परिवार आराम से रहेगा |
बस फिर क्या था वह चतुर मेढ़क फुदक कर निकला कूएं से बाहर और ले के आया एक सांप अपने कूआं में |
धीरे धीरे उस सांप ने एक एक कर के सब मेढ़क निगल लिया सरल मेढ़क के परिवार का |
चतुर मेढ़क ने अब सांप को कुयें से बाहर जाने को कहा पर सांप राजी नहीं हुआ | सांप को आराम से भोजन करने की आदत हो चुकी थी |
अब मेढ़क एक एक कर कर हर रोज चतुर मेढ़क के परिवार के सदस्यों को खाने लगा |
चतुर मेढ़क का पुत्र और पत्नी भी खाए जा चुके थे | अब आनेवाले कल उसी चतुर मेढ़क की बारी थी |
चतुर मेढ़क ने समझाया सांप को कि वह उसे कुयें से बाहर जाने दे | वह जाकर अपने दुसरे रिश्तेदारों को लायेगा |
सांप को चतुर मेढ़क की बात उचित लगी | वह चतुर मेढ़क को कूएं से बाहर निकलने पर मना नहीं किया |
चतुर मेढ़क फुदक कर कुयें से बाहर निकला और कभी नहीं लौटा वापस अपने घर में |

बेटी के पास रहे माँ


10 November 2014
21:53
-इंदु बाला सिंह

" तेरी माँ तेरे साथ रहती है ? " सासु माँ का कामवाली से गप्पें मारना भी एक टाईम पास था |

" हां माँ | " फर्श पर पोचा मारते मारते कामवाली बोली |

" क्यों ? अपने बेटे के पास क्यों नहीं रहती ? "

ये लो अब रूक गया काम |

" अब क्या बोलूं माँ मेरा भाई बोलता है तू तो बेटी की शादी की है इतना खर्चा कर के | रह तू अपनी बेटी के पास | उसकी औरत भी नहीं मानती है मेरी माँ को | कुछ कुछ झूठ सच लगा कर बोलती रहती है भाई को | माँ जाती है भाई के पास कभी कभी मिलने उससे | मेरी माँ भी तो काम करती है घरों में | " फिर शुरू कर दिया कामवाली ने फर्श पर पोचा मारना |


सासु माँ चुप रह गयी |

Friday, November 7, 2014

शिकारी कौवे


07 November 2014
12:54
न जाने क्यों कौए नहीं भाते मुझे |

हमारे घर के सामने एक जामुन का पेड़ था और कौए जामुन चोंच में पकड़ कर हमारी छत की मुंडेर पर बैठ कर खाते थे | पर एक बार में एक ही कौआ बैठता था | दूसरा कौआ आये तो पहला कौआ  उसे अपनी चोंच से मार कर भगा देता था |

कौए का इतना आतंक था छत पर कि किसी भी समय छत पर खड़ा होना खतरनाक था |

एक बार  मैं शाम छ: बजे मुंडेर पर खड़ी थी और नीचे रास्ते में आने जाने वालों को देख रही थी | मन में था कि कौए तो अपने अपने घोंसले में होंगे  और तभी एक कौआ आया और जब तक मैं सम्हलूं सम्हलूं वो मेरे सिर में अपने फूले पेट से धक्का देते हुये उड़ गया | डर कर भागी मैं छत के बीच में | सोंची शुक्र है कौए ने चोंच से नहीं मारा |

छत केवल रात को ही महफूज रहती थी पर कभी कभी उंचाई में उड़ते विशालकाय कौए भी दिखते थे मुझे रात में |

मेरी सहकर्मी ने बताया कि रात में कौए थोड़े न उड़ते हैं | रात में तो चीलें उड़ती हैं | पर मुझे उसकी बात पर कभी विश्वास नहीं हुआ क्योंकि मैंने स्वयं देखा था रात के समय गौरय्या को चीं चीं... कर उड़ते हुये | वह उड़ कर बिजली के तार पर बैठ जाती थी फिर इधर उधर उड़ती रहती थी |

कौए के डर से मैं छत पर छज्जे के नीचे खड़ी रहती थी | अब छत पर कौआ हंकनी की तरह डंडा ले कर खड़ा होना भी सम्भव न था |

एक दिन शाम के चार बजे का समय था और मैं छत पर चली गयी | हमारे बगल की छत पर आकाश में पांच छ: कौओं ने  गोल गोल उड़ कर एक गौरय्या को घेर रखा था  |

अजूबा व नया दृश्य था यह मेरे लिये | देर तक गौरय्या और कौए उड़ते रहे और हवा में उपर नीचे होते रहे | एकाएक एक कौए ने  ऐसी चोंच मारी गौरय्या को कि घायल हो वह गिर पड़ी बगल घर की छत पर | फिर टूट पड़ा उस गिरी चिड़िया पर एक कौआ |

वीभत्स प्राकृतिक दृश्य था |

कुछ साल बाद आंधी में वह जामुन का विशाल वृक्ष गिर पड़ा |


और खुश हुई थी मैं |

Thursday, November 6, 2014

दो पड़ोसिनें


06 November 2014
21:32
-इंदु बाला सिंह

ड्राईंग रूम में आज गर्म मुद्दा था श्रीमती शर्मा के पास |

" आप जो भी कहिये मैंने देखा है कक्षा में आदिवासी बच्चे बड़ी मेहनत से पढ़ते हैं और दुसरे बच्चे इतनी शैतानी करते हैं कि नाक में दम हो जाता है | कम नम्बर लाते हैं वे फेल हो जाते हैं किसी विषय में तो भी उनको कोई चिंता नहीं | उनको लगता है ट्यूशन पढ़ लेंगे काम चल जायेगा | पास हो ही जायेंगे वे | और तो और बोलते हैं मेरे पिता कहते हैं कि तू दस क्लास हो जा वही बहुत है | मेरा काम तू सम्हाल लेना | बच्चे फेल हो जायें तो भी उन्हें फर्क नहीं पड़ता | बैठा देते हैं उनके दुकान दार पिता अपनी दुकान में | मैंने कितने भ्चों को देखा है पिता के दूकान में बैठते हुये | वहीं आदिवासी बच्चे मेहनत से पढ़ते हैं | कालेज में पढ़ने के समय उन्हें स्कालरशिप मिलती है | नौकरी में उम्र की कन्सेशन , बैंक की प्रतियोगी परीक्षाओं में फ्री कोचिंग , नौकरी में आरक्षण | और अब तो लडकियों का आरक्षण | अब आप ही बताईये आदिवासी कितनी उन्नति कर गये हैं | " श्रीमती शर्मा ने अपना अनुभव बांटा |

श्रीमती शर्मा का बेटे ढेर सारी कोचिंग के बाद भी बैंक में नौकरी नहीं पा सका था | उसकी नौकरी की उम्र की समय सीमा भी खत्म हो गयी थी |

श्रीमान शर्मा जी न के बराबर कमाते थे | उनका पैतृक मकान था और उपर का फ्लैट  उन लोगों ने किराये पर उठा दिया था | बस घर का खर्च किसी तरह से चल रहा था | मिसेज शर्मा एक प्राईवेट स्कूल में अध्यापिका थी |

जब तब आ जाती थीं श्रीमती शर्मा अपने मन की भड़ास निकालने अपने पड़ोस में श्रीमती आहूजा के घर | वैसे श्रीमती आहूजा एक अच्छी श्रोता भी थी |

श्रीमती आहूजा को भी अच्छा लगता था अपने पड़ोसन की उपस्थिति क्यों कि उनके पति सुबह का निकले सीधे रात दस बजे ही आते थे घर में और उनके दोनों बेटे होस्टल में रहते थे |

श्रीमान आहूजा की कपड़े की दुकान थी जो की खूब चलती थी |

" आप सही बोल रही हैं पर सोंचिये जो आदिवासी बच्चे गाँव में रहते हैं वे तो कष्ट में हैं न | " श्रीमती आहूजा ने ज्ञान बघारा |


" अरे छोड़िये भी | आप अपने बेटे को भेजिये हमारी दूकान में | उसका मन लगा रहेगा | कुछ काम भी सीख जायेगा | ....चाय बनाती हूं आपके लिये | वैसे मैं चाय का पानी बैठा के आयी थी | " और श्रीमती आहूजा उठ गयी वही बनाने |

Wednesday, November 5, 2014

पोती समझदार हो गयी थी


05 November 2014
22:01
-इंदु बाला सिंह

स्कूटी की ' टीईईईई ' आवाज से सोफे पर अधलेटी दादी उठ बैठी | कांच की खिड़की से उसने देखा उसकी पोती अपनी चाभी से लोहे के गेट में लगा ताला खोल रही है |

दादी ने चैन की सांस ली |

आज उसकी पोती के स्कूल में वार्षिकोत्सव था | शहर के ही एक स्कूल में पोती की नौकरी लगी थी और पोती स्निग्ध के लिये अध्यापिका के रूप में स्कूल का उत्सव देखने का यह पहला अनुभव था |

सबेरे से ही पोती चहक रही थी  और दादी के कान खाये  जा रही थी |

दादी को उसने स्कूल का इनविटेशन कार्ड भी दिया था |

" अरी दादी !..देखो यह कार्ड तुम्हारे लिये है | तुम भी चलो न मजा आयेगा | स्कूल के बच्चों का प्रोग्राम देखोगी | "

" मैं नहीं जाउंगी | ..मैं जाउंगी तो घर सूना हो जायेगा | " दादी ने पोती की गाल पर प्यार भरी चपत लगाते हुये कहा  |

" अरी ओ दादी ! जब तुम मर जाओगी तब घर का कौन पहरा देगा ? " पोती ने दादी को छेड़ा |

" तू चिंता न कर .. मैं तेरे ब्याह से पहले नहीं मरने वाली ...तेरे बाप-माँ ने इतनी बड़ी जिम्मेदारी छोडी है मुझ पर | वो दोनों तो विदेश में पढाई कर रहे हैं | ये भी न जाने कैसी पढ़ाई है बुढौती तक चलती रहती है | "

' अब शुरू न हो जाओ मेरी प्यारी प्यारी दादी | " दादी एक बार शुरू हो जाती थी तो बस बोलती रहती थी | सबकी दादी अपनी बहुओं को कोसती थी पर उसकी दादी का डंडा तो बस अपने दिन रात अपने बेटे का नाम ले कर अपने भाग्य को कोसती रहती थी |

और स्निग्धा भी उच्च शिक्षा के लिये विदेश जाना चाहती थी पर उसके पापा की सख्त मनाही थी उसे | पापा कहते थे जब मैं आऊंगा इण्डिया तब तुम जाना बाहर |

इतने विशाल मकान में कुल दो महिलायें एक दुसरे का सहारा थीं  |

पोती ने स्कूटी अंदर रख कर फिर से ताला लगा दिया |

मकान में दिन भर ताला लगा रहता था | गैरेज में  दादी की कार थी जिसे स्निग्धा निकालती थी कभी कभी |

वैसे पोती और दादी हर इतवार जरूर बाहर जाते थे घुमने |

और दादी रोड खाली हो तब स्टीयरिंग पकड़ लेती थी कर का और खुद कार ड्राईव करती थी |

पोती के कालिंग बेल बजाने से पहले ही दादी ने ड्राइंग रूम का दरवाजा खोल दिया |

झोंके की तरह घुसी पोती  अंदर |

" बड़ा मजा आया दादी ! जो आई० जी० बुलाया गया था न हमारे स्कूल में चीफ गेस्ट के रूप में ,वे कितने यंग और स्मार्ट हैं और उनकी वाईफ !.. कितनी सुंदर है | उन लोगों ने पूरा प्रोग्राम देखा हमारे स्कूल का | " ड्राइंग रूम में टेबल पर अपना पर्स फेंकते हुये कहा स्निग्धा  ने |

" और जानती हो दादी ! मेरी ड्यूटी रिसेप्शन की थी | मैं तो प्रोग्राम देख ही नहीं सकी | "

" अच्छा चल रात के दस बज गये हैं खाना खायेंगे | " डाईनिंग टेबल पर रखे हॉट केस खोलने लगी थी दादी |

" जानती हो दादी ! अंधेरे में लड़के लडकियां  दूर चले जा रहे थे स्कूल के मैदान में | हमारा प्रोग्राम तो हाल में हो रहा था | हमारे स्कूल के स्पोर्ट्स सर हाथ में हाकी स्टिक ले कर घूम रहे थे मैदान में | " हाथ धो कर डाईंग टेबल पर बैठते समय  भी स्निग्धा का उत्साह कम न हुआ था |


पोती बोलती जा रही थी टेबल पर प्लेट में सब्जियां परोसती जा रही थी और दादी सोंच रही थी - कल तक कालेज में पढनेवाली पोती आज कितनी समझदारी की बातें कर रही है |

Tuesday, November 4, 2014

हवा का रुख


04 November 2014
06:57
-इंदु बाला सिंह

गैस सिलिंडर देने आये हाकर ने  दरवाजा खुलते ही कहा -

' राधे ! राधे ! '

नमस्कार की जगह यह अप्रत्याशित स्लोगन सुन चौंकी मैं |

' राधे !राधे ! '

उत्तर तो दे दिया मैंने तुम्हारा पर - हवा का यह कैसा रुख हुआ ?


सोंच में पड़ गयी थी मैं  |