Tuesday, January 6, 2015

भाग्य सदा चलता पुरुषार्थी के साथ ( लोक कथायें )


07 January 2015
10:05
-इंदु बाला सिंह


धर्मराज और कर्मराज नामक दो राजा थे | दोनोंके राज्य की सीमायें पास थीं | दोनों राजा साधू संतों का आदर करते थे | आये दिन राजा अपने शक्ति का प्रदर्शन करने के लिये एक दुसरे पर चढ़ाई करते थे और  अपना कुछ इलाका गंवा बैठते थे |

एक बार युद्ध से पहले धर्मराज अपने राजय के महर्षि के पास आशीर्वाद के लिये गया | राजा के पास विशाल सेना थी इस समय |

महर्षि ने कहा - ' तुम्हारी विजय निश्चित है | '

धर्मराज खुशी खुशी अपने राज महल में लौट गये | उन्होंने अपने सेनापति को महर्षि का आशीर्वाद सुनाया |

सेनापति से बात सैनिकों तक पहुंची | अब पूरी सेना खुश थी |


उधर कर्मराज भी अपने राज्य के महर्षि  से मिला | महर्षि को ज्ञात था कि राजा की सेना कम है | अतः महर्षि ने कहा - ' तुम्हारी जीत संदिग्ध है | '

कर्मराज दुखी मन से वापस लौटा | उसने अपने सेनापति को महर्षि का कथन सुनाया |

' राजन ! आप निश्चिन्त रहें हम युद्ध में अपना जी जान लगा देंगे | आप देखिएगा | हमारा एक एक सैनिक उनके दस सैनिक के बराबर है |  हम जरूर जीतेंगे युद्ध में | ' सेनापति ने कहा |

सेनापति ने सैनकों को  महर्षि का कथन सुनाया और कहा -

' मेरे प्यारे सैनिको ! यह हमारे श्रम और मनोबल के परीक्षा की घड़ी है | हमें दुश्मन बीस सैनिक मारने का प्रण करना है | '

पूरी सेना में जोश भर गया | सब गाने लगे- ' जीतेंगे ! ....भई जीतेंगे !...जीते बिना नहीं लौटेंगे | '

कर्मराज की सेना जबर्दस्त तरीके से युद्ध कौशल का अभ्यास करने लगी |

धर्मराज की सेना दो घंटे भी न टिक सकी कर्मराज की सेना के सामने |

धर्मराज ने हार कर सफेद झंडा लहरा दिया |

कर्मराज मुस्कुरा उठा |

धर्मराज क्रोधित हो के लौटा अपने महर्षि के सामने | उसने कड़े शब्दों में महर्षि से कहा -

' महर्षि ! आप राज दंड के काबिल हैं | आपने झूठ कहा था कि हमारी विजय होगी | '


' तुम्हारे भाग्य में जीत थी पर तुमने श्रम न किया | भाग्य सदा पुरुषार्थी का ही साथ देता है | तुम्हारी सेना ने ठीक से युद्ध्याभास न किया होगा | ' महर्षि ने शांत शब्दों में कहा |

धर्मराज ने महर्षि की बातों का मर्म समझ लिया | वह चुपचाप लौट गया राजमहल में |



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