#लघु_लेख
- इन्दुबाला सिंह
शिक्षक का इतना बड़ा योगदान है बच्चे के विकास में कि उसका वर्णन करना नक्षत्रों की दूरी नापना जैसा है । शिक्षक अगर जन्मदाता हुआ तो क्या बात है । बच्चे के कच्चे मन पर शिक्षक के शब्दों का प्रभाव तो पड़ता ही है पर शिक्षक के जीवन शैली और व्यवहार के माध्यम से उस पर कुछ ज्यादा गहरा प्रभाव पड़ता है । अपने निकटस्थ रक्तसम्बन्धी , पड़ोसी मित्रों की जीत हार का अमिट प्रभाव पड़ता है हर बच्चे पर ।
आफिस में , रिश्तेदारों में , घर में आयी समस्याओं का दूरीकरण हम किस प्रकार करते हैं यह हमारी औलाद हम से ही सीखती है क्यों कि वह हमपर विश्वास करता है । हमारी औलाद वह घड़ा है जिसे हम तैयार करते हैं अपनी आंच में । स्कूल के पढ़ाये पाठ जब हम अपने बच्चे के मुंह से समझते हैं तब हम अपने बच्चे का मन पढ़ते हैं । यहां मैं सोंचती हूं कि सबसे पहले हमें यह समझना चाहिये की हमारी औलाद ही हमारी प्रिय मित्र है । हमारा बच्चा पैदा होते ही हम पर निर्भरशील नहीं होता है बल्कि हम उसपर निर्भरशील होते हैं । वही हमारा ऐसा प्रतिरूप होता है जो अपना अलग अस्तित्व रखे होता है । हमारा प्रतिरूप हमारी औलाद अर्थात हमारा बेटा या बेटी हमसे जो पाती है वही अपने मन के बैंक में सुरक्षित रखती है और फिर उसे हमें हमारी जरूरत के अनुसार हमे निकाल कर देती है ।
परिवार के लिये त्याग का पाठ स्कूल में पढ़ हम उस आलोचना को फिर से समझने के लिये जब बालमन घर में कोई मित्र नहीं पाता है तो वह स्वयं अपने कच्चे हाथों से अपने मन को रूप देने लगता है , आदर्श तलाशता है , किसी अजनबी को गुरु बनाता है । कायरों की भाषा में कहूं तो भाग्य के भरोसे हो जाता है ।
हम कितने भी अनपढ़ या अज्ञानी क्यों न हों हम यह न भूलें कि हमारे पास अनुभव है और हमारी औलाद हमारी प्रिय मित्र है ।
- इन्दुबाला सिंह
शिक्षक का इतना बड़ा योगदान है बच्चे के विकास में कि उसका वर्णन करना नक्षत्रों की दूरी नापना जैसा है । शिक्षक अगर जन्मदाता हुआ तो क्या बात है । बच्चे के कच्चे मन पर शिक्षक के शब्दों का प्रभाव तो पड़ता ही है पर शिक्षक के जीवन शैली और व्यवहार के माध्यम से उस पर कुछ ज्यादा गहरा प्रभाव पड़ता है । अपने निकटस्थ रक्तसम्बन्धी , पड़ोसी मित्रों की जीत हार का अमिट प्रभाव पड़ता है हर बच्चे पर ।
आफिस में , रिश्तेदारों में , घर में आयी समस्याओं का दूरीकरण हम किस प्रकार करते हैं यह हमारी औलाद हम से ही सीखती है क्यों कि वह हमपर विश्वास करता है । हमारी औलाद वह घड़ा है जिसे हम तैयार करते हैं अपनी आंच में । स्कूल के पढ़ाये पाठ जब हम अपने बच्चे के मुंह से समझते हैं तब हम अपने बच्चे का मन पढ़ते हैं । यहां मैं सोंचती हूं कि सबसे पहले हमें यह समझना चाहिये की हमारी औलाद ही हमारी प्रिय मित्र है । हमारा बच्चा पैदा होते ही हम पर निर्भरशील नहीं होता है बल्कि हम उसपर निर्भरशील होते हैं । वही हमारा ऐसा प्रतिरूप होता है जो अपना अलग अस्तित्व रखे होता है । हमारा प्रतिरूप हमारी औलाद अर्थात हमारा बेटा या बेटी हमसे जो पाती है वही अपने मन के बैंक में सुरक्षित रखती है और फिर उसे हमें हमारी जरूरत के अनुसार हमे निकाल कर देती है ।
परिवार के लिये त्याग का पाठ स्कूल में पढ़ हम उस आलोचना को फिर से समझने के लिये जब बालमन घर में कोई मित्र नहीं पाता है तो वह स्वयं अपने कच्चे हाथों से अपने मन को रूप देने लगता है , आदर्श तलाशता है , किसी अजनबी को गुरु बनाता है । कायरों की भाषा में कहूं तो भाग्य के भरोसे हो जाता है ।
हम कितने भी अनपढ़ या अज्ञानी क्यों न हों हम यह न भूलें कि हमारे पास अनुभव है और हमारी औलाद हमारी प्रिय मित्र है ।