Monday, November 11, 2013

बुजर्ग मित्र

लाठी के सहारे  सुबह की सैर को निकले  थे जयराम जी |
अपने घर के गेट के पास खड़े खड़े उसने  उस बुजुर्ग को पहचानने की चेष्टा की | कितने दिनों बाद यह चेहरा दिखा था उसे |
" कहीं ये जयराम जी नहीं ! ... "
" किसी का चेहरा किसी से मिलता जुलता भी तो हो सकता है ...पास आने पर पता चलेगा ..." मन ही मन सोंचा उसने |

" कुमार जी कैसे हैं ? " बगल से गुजरते हुये जब वे बोल पड़े तो उसकी हथेलियां स्वत: प्रणाम की मुद्रा में जुड़ गयीं |

" जयराम जी ! " उसकी आँखों में प्रश्नवाचक चिन्ह था |

" हां ! " जब जयराम जी के मुख से निकला तब विश्वास हुआ उसे खुद पर |

उसका अनुमान गलत न था |

" बहुत दिन बाद देखे ?"

" बेटा ! बीमार रहता हूं ..किडनी खराब हो गयी है | "

" और कुमार जी कैसे हैं ? " उन्होंने पिता के बारे में पुनः पूछा |

" वो तो तीन साल हो गया चले गए | " वह आकाश की और इशारा कर के बोल पड़ी |

" अरे ! मुझे तो पता ही न चला ! .... कितनी मित्रता थी उनसे ....मैं तो यहीं दो सड़क के पार रहता हूँ ........ " वे धीरे से बोले |

" मोबाइल नम्बर नहीं था मेरे पास आपका .... नहीं तो मैं जरूर खबर करती आपको ..... " उसने अपनी मजबूरी प्रकट की |

" क्रिया कर्म यहीं हूआ क्या ? " जयराम जी फिर कुछ सोंचते सोंचते बोल पड़े |

" जी .... दरअसल कार्ड किसको किसको भेजना है .. यह सलाह मशविरा मुझसे किसी ने नहीं हुआ ....."

" ओह !....सुबह सुबह खबर मिली .... हां ....अकेली को कौन पूछता है बिटिया .......................... अच्छा नमस्कार ! ...."


और जयराम जी  आगे चल पड़े | सुबह की सैर मिलाती है मित्रों से ...उनकी खबरें भी देती है |

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