Monday, September 30, 2013

सीमा

सीमा का घर मेरे घर के सामने था  |

पिता ने लिख दिया था अपनी बेटी के नाम एक कमरा | उसका भी एक कारण था | पिता ने निकम्मे दामाद को यह कह कर भगा दिया था कि तुम जाओ मैं तुम्हारी पत्नी और तुम्हारी बेटी को अपने घर में रख कर उन की अच्छी तरह देख भाल करूंगा |

 पिता को भय था कहीं दामाद घर में रह कर मकान का हकदार न बन जाय |

इस तरह सीमा आजीवन पितृ गृह  में रह सकती थी |

भला किसे भाए बेटी का  उस धनाढ्य इलाके में रहना | भरे पूरे घर के सदस्यों के  ताने सुन जीवन काटती सीमा मुहल्ले की महिलाओं के तो छोड़िये कामवालियों  की आंख की भी किरकिरी थी | जिन्दगी भर प्राईवेट संस्थान में नौकरी की आमदनी से अपना घर बनाना तो सीमा के लिए असम्भव था |
इकलौती बेटी ने घर भाग कर घर बसा लिया था अपना |

बुढौती बोझ थी सीमा के लिए |

अपना अलग खाना बना कर अपने कमरे में सोने पर भी घर में आये दिन किसी न किसी से तू तमार होती रहती थी | पर बला की जीवट महिला थी सीमा इतना झेलने के बाद भी  न तो वह घर से भागी न ही ईश्वर से मौत मांगी |

कोई  उसे मान न देता था पर वह स्वयं की पीठ ठोकती थी कि वह  भगोड़ी नहीं जीवन युद्ध के मैदान की |

एक दिन धूम धाम से अर्थी निकली सीमा की उस घर से |

मृत्यु भोज हुआ |

भाईयों भाभियों ने वाहवाही बटोरी बहन के देखभाल की |

मेरी खिड़की से दिखता एक चरित्र अतीत के गर्भ में समा गया था  ?

                                   

                      

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